मानसिक सुख और संतोष

जब आवै संतोष धन सब धन धुरि समान

संतोषी सदा सुखी

गौधन गजधन वाजिधन और रतन धन खानि

जब आवै संतोष धन सब धन धुरि समान

आज भले ही संतोषी स्वभाव वाले व्यक्ति को मुर्ख और कायर कहकर हंसी उड़ाई जाय लेकिन संतोष ऐसा गुण हैं जो आज भी सामाजिक सुख शांति का आधार बन सकता हैं।असंतोष और लालसा ने श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को उपेक्षित कर दिया हैं. चारों ओर इर्ष्या, द्वेष और अस्वस्थ होड़ का बोलबाला हैं. परिणामस्वरूप मानव जीवन की सुख शान्ति नष्ट हो गयी हैं.

मानसिक सुख और संतोष

दुनिया में धन का हमेशा महत्त्व रहा है। धन से सब कुछ खरीदा जाता है। धन को सुख का साधन माना गया है। आज मनुष्य का सारा जीवन धन कमाने में ही बीतता है। इसके लिए वह उचित–अनुचित सब उपाय अपनाता है। आर्थिक मनोकामनाएँ निरंतर पूरी होते रहने पर भी मनुष्य असन्तुष्ट रहता है।

आध्यात्मिक धन–असंतोष मानव जीवन का अभिशाप है और संतोष मानव जीवन का वरदान है। इस सम्बन्ध में भारत के अनेक कवियों की काव्य–पंक्तियों को उद्धृत किया जा सकता है।

साईं इतना दीजियो जामें कुटुंब समाय।

मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।

कबीर मीत न नीत गलीत है जो धरिये धन जोर।

खाए खरचे जो बचै तौ जोरिये करोर। – बिहारी

उपर्युक्त सभी कवियों ने एक ही बात पर जोर दिया है कि संसार में संतोषरूपी धन ही सबसे बड़ा धन है और जब यह प्राप्त हो जाता है तो संसार में किसी धन की आवश्यकता नहीं रह जाती।

आज सारा संसार पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाकर अधिक–से–अधिक धन कमाने की होड़ में लगा हुआ है। उसकी मान्यता है कि कैसे भी कमाया जाय अधिक धन कमाना चाहिए। धनोपार्जन के लिए मनुष्य किसी भी सीमा तक गिर सकता है। अनुचित साधनों द्वारा अर्जित काला धन ही लोगों की उज्ज्वलता का माध्यम बन गया है। अत: संसार की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था दूषित हो गई है।अधिक–से–अधिक धन बटोरने की होड़ मची है। अमीर और अमीर बन रहा है। गरीब और गरीब होता जा रहा है। गरीब मजबूर है, आत्महत्या करने को विवश है। मानव–जाति आज जिस स्थिति में पहुंच गई है, उसका कारण कहीं बाहर नहीं है स्वयं मनुष्य के विचारों में ही है। आज का मानव इतना स्वार्थी हो गया है कि उसे केवल अपना सुख ही दिखाई देता है। वह स्वयं अधिक से अधिक धन कमाकर संसार का सबसे अमीर व्यक्ति बनना चाहता है। यही असंतोष का कारण है।

सम्पूर्ण मानव जाति आज जिस स्थिति में पहुच गई हैं. इसका कारण कहीं बाहर नहीं हैं, स्वयं मनुष्य के मन में ही हैं. आज का मानव इतना स्वार्थी हो गया हैं कि उसे केवल अपना सुख ही दिखाई देता हैं।वह स्वयं अधिक से अधिक धन कमाकर संसार का सबसे अमीर व्यक्ति बनना चाहता हैं. फोबर्स नामक पत्रिका ने इस स्पर्द्धा को और बढ़ा दिया हैं. इस पत्रिका में विश्व के धनपतियों की सम्पूर्ण सम्पति का ब्यौरा होता हैं। तथा उसी के अनुसार उन्हें श्रेणी प्रदान की जाती है. अतः सबसे ऊपर नाम लिखाने की होड़ में धनपतियों में आपाधापी मची हुई हैं. यह सम्पति असंतोष का कारण बनी हुई हैं. इसके अतिरिक्त घोर भौतिकवादी दृष्टिकोण भी असंतोष का कारण बना हुआ हैं। खाओ पियो मौज करो यही आज का जीवन दर्शन बन गया हैं। इसी कारण सारी नीति और मर्यादाएं भूलकर आदमी अधिक से अधिक धन और सुख सुविधाएं बटोरने में लगा हुआ हैं. कवि प्रकाश जैन के शब्दों में

“हर ओर धोखा झूठ फरेब, हर आदमी टटोलता है दूसरे की जेब”

प्राचीनकाल से आज तक अनेक महापुरुषों ने इस विषय में अपने विचार व्यक्त किये हैं तथा निष् रूप में यही कहा है कि “धन केवल साधन है साध्य नहीं”। अत: संतोष धन प्राप्त करने में नहीं है। उपनिषद, है–”तेन त्यक्तेन भुंजीथा” जो त्याग करने में समर्थ है उसे ही भोगने का अधिकार है। अत: संतोष में हो सुख है। किन्तु यः उपदेश केवल गरीबों के लिए है और इकतरफा है।

इच्छाओं का अंत नहीं, तृष्णा कभी शांत नहीं होती, असंतुष्टि की दौड़ कभी खत्म नहीं होती, जो धन असहज रूप से आता हैं।वह कभी सुख शान्ति नहीं दे सकता, झूठ बोलकर, तनाव झेलकर अपराध भावना का बोझ ढोते हुए, न्याय, नीति, धर्म से विमुख होकर जो धन कमाया जाएगा, उससे चिंताएं, आशंकाए और भय ही मिलेगा सुख नहीं. इस सारे जंजाल से छुटकारा पाने का एक ही उपाय हैं संतोष की भावना।

आज नहीं तो कल धन के दीवानेपन को अक्ल आएगी. धन समस्याओं को हल कर सकता हैं भौतिक सुख सुविधाओ को दिला सकता हैं,किन्तु मन की शान्ति तथा चिंताओं और शंकाओं से रहित जीवन धन से नहीं संतोष से ही प्राप्त हो सकता हैं. संतोषी सदा सुखी यह कथन आज भी प्रासंगिक हैं. असंतोषी तो सिर धुनता हैं तब संतोषी सुख की नीद सोता हैं.निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संतोष का उपदेश देना ही काफी नहीं है। उत्पादन के साधनों का समान वितरण भी जरूरी है। जब समाज में असमानता नहीं होगी, अमीरी–गरीबी के दो ऊँचे–नीचे पर्वत नहीं बने होंगे तो असंतोष स्वयं ही नष्ट हो जायेगा।

प्रश्न/उत्तर

प्रश्न 1. संतोष क्या होता हैं? 

उत्तर: संतोष का अर्थ है तृप्ति! यह एक अवधारणा है‌। अगर कोई मनुष्य अपने मन-मस्तिष्क में इसे धारण कर पाता है, तो वह सुखी हो जाता है। संतोष से संतुष्टि मिलती है और संतुष्टि संतुष्ट होने का भाव है, तृप्त होने का भाव है।

प्रश्न 2.मानसिक सुख का अर्थ क्या है?

हम मानसिक सुखों को मानसिक घटनाओं के लिए आत्मा की प्रतिक्रिया का प्रतिनिधित्व करते हैं (हालांकि एक स्तर पर, यहां तक ​​कि मानसिक या मानसिक घटनाओं को विशुद्ध रूप से भौतिक शब्दों में समझाया जा सकता है, परमाणुओं की गति के रूप में)।

प्रश्न 3.जीवन में सुख से क्या अभिप्राय है?

उत्तर: जीवन में ‘सुख’ का अभिप्राय केवल उपभोग-सुख नहीं है। परन्तु आजकल लोग केवल उपभोग के साधनों को भोगने को ही ‘सुख’ कहने लगे है। विभिन्न प्रकार के मानसिक, शारीरिक तथा सूक्ष्म आराम भी ‘सुख’ कहलाते। 

प्रश्न 4.मस्तिष्क में सुख कहां होता है?

उत्तर: मस्तिष्क का आनंद केंद्र तंत्रिका कोशिकाओं के माध्यम से आगे बढ़ने के लिए जाना जाता है जो न्यूरोकेमिकल डोपामिन का उपयोग करके संकेत करता है और आम तौर पर वीटीए में स्थित होता है । डोपामिनर्जिक न्यूरॉन्स आनंद संकेतों को पारित करने के लिए एक “उल्लेखनीय क्षमता” प्रदर्शित करते हैं।

प्रश्न 5.जीवन में सुख किस कारण से होता है?

उत्तर: एंडोर्फिन – खुशी के हार्मोन – जो आकर्षण महसूस करने से जुड़े हैं। डोपामाइन, जो तब उत्पन्न होता है जब हम संतुष्ट महसूस करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप हम खुश, उत्साहित और उत्तेजित महसूस करते हैं। ऑक्सीटोसिन, जो रिश्तों से जुड़ा हुआ है और हमें अन्य मनुष्यों के साथ संबंध बनाने में मदद करता है।