महाकवि कालिदास ने अपनी विश्वप्रसिद्ध रचना ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में महर्षि कण्व से कहलवाया है–
“अर्थो हि कन्या परकीय एव।”
अर्थात् कन्या पराया धन है, न्यास है, धरोहर है।
न्यास और धरोहर की सावधानी से सुरक्षा करना तो सही है, किन्तु उसके पाणिग्रहण को दान कहकर वर–पक्ष को सौदेबाजी का अवसर प्रदान करना तो कन्या–रत्न के साथ घोर अन्याय है।
दहेज़ प्रथा का अर्थ है शादी के समय दुल्हन के परिवार द्वारा दूल्हे के परिवार को दी गयी रुपये (नकदी), आभूषण, फर्नीचर, सम्पति और अन्य कीमती वस्तुएँ आदि। इस सिस्टम (प्रणाली) को दहेज़ प्रणाली कहा जाता है। परन्तु ये तो आप जानते ही होंगे कि दहेज़ लेना और दहेज़ देना अपराध है।आज दहेज समस्या कन्या के जन्म के साथ ही, जन्म लेने वाली विकट समस्या बन चुकी है। आज कन्या एक ऋण–पत्र है, ‘प्रॉमिज़री नोट’ है और पुत्र विधाता के बैंक से जारी एक ‘गिफ्ट चैक’ बन गया है।दहेज की परम्परा आज ही जन्मी हो, ऐसा नहीं है, दहेज तो हजारों वर्षों से इस देश में चला आ रहा है। प्राचीन ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख मिलता है।प्राचीन समय में दहेज नव–दम्पत्ती को नवजीवन आरम्भ करने के उपकरण देने का और सद्भावना का चिह्न था। उस समय दहेज कन्या पक्ष की कृतज्ञता का रूप था। कन्या के लिए दिया जाने वाला धन, स्त्री–धन था, किन्तु आज वह कन्या का पति बनने का शुल्क बन चुका है।आज दहेज अपने निकृष्टतम रूप को प्राप्त कर चुका है। अपने परिवार के भविष्य को दाँव पर लगाकर समाज के सामान्य व्यक्ति भी इस मूर्खतापूर्ण होड़ में सम्मिलित हो जाते हैं।
माता-पिता अपनी बेटी को दहेज़ देकर ससुराल में उसका जीवन सुखमई बनाने की कोशिश करते है दहेज़ प्रथा से कई औरतें खुले तरीके से रह पाती है क्योंकि दहेज़ में मिली नकदी, संपत्ति, फर्नीचर, कार और अन्य प्रॉपर्टी उनके लिए एक वित्तीय सहायता की तरह काम करती है। इससे दूल्हा और दुल्हन अपना जीवन की अच्छी शुरुआत कर सकते है लेकिन क्या यह एक वैलिड रीज़न है? यदि ऐसा ही है तो दुल्हन के परिवार पर पूरा भोज डालने के बजाय दोनों परिवार को उनके करियर बनाने के लिए इन्वेस्ट करना चाहिए।
इस स्थिति का कारण सांस्कृतिक रूढ़िवादिता भी है। प्राचीनकाल में कन्या को वर चुनने की स्वतंत्रता थी। किन्तु जब से माता–पिता ने उसको किसी के गले बाँधने का पुण्य कार्य अपने हाथों में ले लिया है तब से कन्या अकारण ही हीनता की पात्र बन गई है। वर पक्ष से कन्या पक्ष को हीन समझा जाने लगा है।इस भावना का अनुचित लाभ वर–पक्ष पूरा–पूरा उठाता है। घर में चाहे साइकिल भी न हो, परन्तु बाइक पाए बिना तोरण स्पर्श न करेंगे। बाइक की माँग तो पुरानी हो चुकी अब तो कार की मांग उठने लगी है। बेटी का बाप होना जैसे पूर्व जन्म और वर्तमान जीवन का भीषण पाप हो गया है।
दहेज के दानव ने भारतीयों की मनोवृत्तियों को इस हद तक दूषित किया है कि कन्या और कन्या के पिता का सम्मान–सहित जीना कठिन हो गया है। इस प्रथा की बलिवेदी पर न जाने कितने कन्या–कुसुम बलिदान हो चुके हैं। लाखों पारिवारिक जीवन की शान्ति को नष्ट करने और मानव की सच्चरित्रता को मिटाने का अपराध इस प्रथा ने किया है।तथाकथित बड़ों को धूमधाम से विवाह करते देख–छोटों का मन भी ललचाता है और फिर कर्ज लिए जाते हैं, मकान गिरवी रखे जाते हैं। घूस, रिश्वत, चोरबाजारी और उचित–अनुचित आदि सभी उपायों से धन–संग्रह की घृणित लालसा जागती है। सामाजिक जीवन अपराधी भावना और चारित्रिक पतन से भर जाता है। एक बार ऋण के दुश्चक्र में फंसा हुआ गृहस्थ अपना और अपनी सन्तान का भविष्य नष्ट कर बैठता है।यह समस्या इसके मूल कारणों पर प्रहार किये बिना नहीं समाप्त हो सकती। शासन कानूनों का दृढ़ता से पालन कराये, यदि आवश्यक हो तो विवाह–कर भी लगाये ताकि धूमधाम और प्रदर्शन समाप्त हो। स्वयं समाज को भी सच्चाई से इस दिशा में सक्रिय होना पड़ेगा। दहेज–लोभियों का सामाजिक बहिष्कार करना होगा। कन्याओं को स्वावलम्बी और स्वाभिमानी बनना होगा।
सरकार ने दहेज़ प्रथा को रोकने के लिए साल 1975 में कानून बनाया था। कानून के अनुसार दहेज़ लेना और दहेज़ देना क़ानूनी अपराध है। सरकार द्वारा दहेज़ विरोधी कानून को और एफ्फेक्टेड बनाने के लिए संसदीय कमीटी बनाने का गठन किया है। साल 1983 में दहेज़ से सम्बंधित नए कानून सबके सामने लाये गए। जिसके अनुसार यदि कोई दहेज़ के लालच में किसी भी महिला को आत्महत्या करने पर मजबूर करेंगे उसे व उसके परिवार को दण्डित किया जायेगा। इसी के साथ दहेज़ प्रथा के कारण नारी पर हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए उपाय करने होंगे। बता देते है यदि कोई व्यक्ति दहेज़ लेता है तो उसे एक्ट 1961 के तहत दहेज़ लेने के लिए 3 साल की सजा हो सकती है।
ये तो सभी जानते है कि दहेज़ प्रथा इतनी जल्दी पूरी तरह से खत्म नहीं हो सकती लेकिन हमे ये प्रयास करना होगा कि हम इसे सबसे पहले अपने से शुरू करना होगा जिसके बाद ही यह धीरे-धीरे खत्म हो सकेगा अन्यथा हमारी आने वाली पीड़ी के लिए यह प्रथा और भी खतरनाक हो जाएगी और ऐसी ही कई महिलाओं के साथ दहेज़ प्रथा के कारण अत्याचार होता रहेगा।
अधिकतर पूछे जाने वाले प्रश्न
प्रश्न 1. दहेज प्रथा कब शुरू हुआ?
उत्तर-अथर्ववेद के अनुसार, दहेज़ प्रथा ”वहतु” के रूप में उत्तर वैदिक काल में शुरू हुयी थी। उस समय लड़की का पिता उसे ससुराल विदा करते समय कुछ तोहफे देता था, जिसे वहतु कहते थे। यह सिर्फ अपनी ख़ुशी से दिए हुए तोहफे होते थे।
प्रश्न 2. दहेज की शुरुआत किसने की?
उत्तर-भारत में, मध्यकाल में इसकी जड़ें हैं जब शादी के बाद अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए दुल्हन को उसके परिवार द्वारा नकद या वस्तु के रूप में उपहार दिया जाता था। औपनिवेशिक काल के दौरान, यह शादी करने का एकमात्र कानूनी तरीका बन गया, जब अंग्रेजों ने दहेज प्रथा को अनिवार्य कर दिया।
प्रश्न 3.भारत में दहेज प्रथा के क्या कारण है?
उत्तर-लैंगिक भेदभाव और अशिक्षा दहेज़ प्रथा का प्रमुख कारन है। दहेज प्रथा के कारण कई बार यह देखा गया है कि महिलाओं को एक दायित्व के रूप में देखा जाता है और उन्हें अक्सर अधीनता हेतु विवश किया जाता है तथा उन्हें शिक्षा या अन्य सुविधाओं के संबंध में दोयम दर्जे की सुविधाएँ दी जाती हैं।
प्रश्न 4. दहेज क्यों दिया जाता था?
उत्तर-मूल रूप से, दहेज दुल्हन या दुल्हन के परिवार को दिया जाता था, इसके विपरीत नहीं! दहेज का मूल उद्देश्य दुल्हन के परिवार को उसके श्रम और उसकी प्रजनन क्षमता के नुकसान के लिए क्षतिपूर्ति करना था।
प्रश्न 5. भारत में दहेज प्रथा को किसने रोका?
उत्तर- भारत की संसद द्वारा अनुमोदित दहेज निषेध अधिनियम 1961 और बाद में भारतीय दंड संहिता की धारा 304बी और 498ए सहित विशिष्ट भारतीय कानूनों के तहत दहेज का भुगतान लंबे समय से प्रतिबंधित है।